Saturday, November 8, 2014

अमल बिना सम्मेलनों का क्या अर्थ!


(प्रमोद भार्गव)

जलवायु परिवर्तन की भयावहता प्रकट करने वाली वैज्ञानिकों की रिपोर्टें लगातार रही हैं। जिस तरह प्राकृतिक आपदाओं की निरंतरता बढ़ रही है, उससे साफ है कि खतरे के दिए जा रहे संकेत असंदिग्ध हैं। लिहाजा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अंतर सरकारी समिति की पांचवी ताजा रिपोर्ट पर गंभीरता से विचार कर अंकुश लगाने की कोशिशें नहीं कि गई तो दुनिया का तबाही की ओर बढ़ना तय है। रिपोर्ट में बताया गया है कि समुद्र और वायुमंडल के तापमान में वृद्धि, नियंतण्र वष्ाचक्र में बदलाव, हिमखंडों का पिघलना और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि पृथ्वी को संकट में डाल सकते हैं। इन खतरों के बढ़ने का प्रमुख कारण वह औद्योगिक-प्रौद्योगिक विकास है, जो लगातार ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा रहा है, लेकिन उनकी कटौती के लिए कोई देश तैयार नहीं है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने रिपोर्ट जारी करते हुए उम्मीद की है कि दिसम्बर 2014 में पेरू के लीमा शहर में जलवायु परिवर्तन के सिलसिले में जो बैठक प्रस्तावित है, उसे मुकाम तक पहुंचाया जाए। विकसित और विकासशील देशों के उदारवादी चिंतन से जुड़े 193 देशों के प्रतिनिधियों की अब तक हुई शिखर परिर्चचाओं के परिणाम कारगर साबित नहीं हुए हैं। 22 साल पहले हुए क्योटो प्रोटोकॉल के कॉर्बन उत्सर्जन में कमी से जुड़े प्रावधान को अब तक अमल में नहीं लाया जा सका है और विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक दी गई है। लिहाजा इस अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संधि के कोई बाध्यकारी हल नियंतण्र पंचायतों में नहीं निकल पा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर हुई पंचायतों को पृथ्वी बचाने के श्रेष्ठ अवसर के रूप में देखा जा रहा है लेकिन कॉर्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर विकसित विकासशील देशों के अपने- अपने पूर्वाग्रह हैं। नतीजतन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 20 प्रतिशत कमी के लक्ष्य पर कोई सहमति नहीं बन पाती है। अमेरिका समेत अन्य उभरती अर्थव्यस्था वाले देश इस कटौती के लिए किसी बाध्यकारी संधि पर हस्ताक्षर को तैयार नहीं होते। भारत भी इस मुद्दे पर अपने औद्योगिक आर्थिक हितों का पूरा ख्याल रखता है। ताजा रिपोर्ट में जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म करना है लेकिन सऊदी अरब जैसे तेल उत्पादक देश इस शर्त को मानने वाले नहीं हैं,क्योंकि उनकी समूची अर्थव्यस्था ही तेल के कारोबार पर निर्भर है। भारत भी ग्रीन हाउस गैसों पर नियंतण्रसे जुड़े ऐसे मुद्दों से असहमति जताता रहा है जो उसके औद्योगिक हितों पर कुठाराघात करने वाले हैं। ये मुद्दे हैं- कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती पर कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य, कॉर्बन उत्सर्जन कम करने के लिए किसी राष्ट्रीय कार्रवाई की अंतरराष्ट्रीय जांच और कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई बंधनकारी शर्त मानना। भारत ने ये शत्रें इसलिए रखी थीं, क्योंकि उसे विकसित देशों से उम्मीद नहीं थी कि वे जरूरी आर्थिक मदद के साथ कॉर्बन उत्सर्जन नियंत्रित प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराएंगे। बहरहाल, धनी देशों की गरीब देशों को धोखे में डालने वाली मंशा के मसौदे का खुलासा ब्रिटेन के अखबार गार्जियन’ में हुआ था। मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन से अधिक कॉर्बन उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा सिर्फ 2.67 टन तय की गई थी। इस धोखाधड़ी के खुलासे से पूर्व जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय समिति (आईपीसीसी) के अध्यक्ष राजेंद्र पचौरी ने पहले ही आगाह किया था कि 1990 के स्तर से महज तीन प्रतिशत कटौती के अमेरिकी लक्ष्य के कारण संधि का पालन मुशिकल होगा, इसलिए औद्योगिक देशों से ज्यादा कटौती की अपेक्षा की जाए। आईपीसीसी ने 2007 में ही चेता दिया था कि 2020 तक 1990 के ग्रीन हाउस उत्सर्जन की तुलना में 25 से 40 प्रतिशत तक कमी लाकर प्राकृतिक सूखा, बाढ़ समुद्र के बढ़ते जलस्तर जैसे पल्रयंकारी दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है लेकिन इन चेतावनियों को कोई देश मानने को तैयार नहीं है। यही वजह है कि समुद्री तूफानों की आवृत्ति बढ़ रही है। हुदहुद की पूंछ पकड़ चला आया निलोफर तूफान इसका ताजा उदाहरण है। क्योटो संधि के प्रारूप के अनुकूल पर्यावरण के लिए अहितकारी गैसों के उत्सर्जन पर कटौती के बारे में विकसित और विकासशील देशों के समूहों के बीच आम सहमति तो दूर की कौड़ी रही, एक सर्वमान्य सहमति राजनीतिज्ञ वक्तव्य पेश करने के सुझाव पर भी गहरे मतभेद उभरकर सामने गए थे। जापान, कनाडा, न्यूजीलैंड, सऊदी अरब और हॉलैंड जैसे औद्योगिक देशों का प्रबल आग्रह था कि कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए सभी देशों के लिए एक सशर्त आचार संहिता लागू हो। विकासशील देशों ने इस शर्त को सिरे से खारिज कर दिया था। इनका तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक-प्रौद्योगिक प्रभुत्व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए जबर्दस्त ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं। इसलिए खर्च के अनुपात में ऊर्जा कटौती की पहल भी इन्हीं देशों को करनी चाहिए। विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब है, क्योंकि वे यदि किसी प्रस्ताव के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अंकुश लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी। इसी मंशा के चलते एक चौथाई कॉर्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने क्योटो संधि से दूरी बनाए रखी और मात्र 17 प्रतिशत कॉर्बन उत्सर्जन कम करने का भरोसा जताया। लिहाजा रिपोर्ट में 2100 तक सभी देशों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य स्तर तक पहुंचाने का जो आग्रह है, उस पर अमल नामुमकिन है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संस्थान के अनुसार 2007 में विकसित राष्ट्रों की कॉर्बन उत्सर्जन में भूमिका अमेरिका 19.1, आस्ट्रेलिया 18.8 और कनाडा 17.4 मीट्रिक टन प्रति व्यक्ति थी। वहीं विकासशील देशों में चीन की भूमिका 4.6, भारत की 1.2 और नेपाल की 0.1 मीट्रिक टन प्रति व्यक्ति थी। चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होने के बावजूद भारत में प्रति व्यक्ति कॉर्बन उत्सर्जन की दर विश्व की औसत दर से 70 फीसद कम है और अमेरिका के मुकाबले यह 93 प्रतिशत नीचे है। वैसे भी 1990 से लेकर अब तक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में केवल 65 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 2020 तक यह दर बमुश्किल 70 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद है। यदि बढ़ती अर्थव्यस्थाओं वाले देशों से इसकी तुलना की जाए तो यह बहुत कम है। अमेरिका और चीन की तुलना में यह दर क्रमश: 15 और 14 प्रतिशत कम है। बावजूद इसके पृथ्वी का तापमान बढ़ाने के लिए सभी औद्योगिक देश दोषी हैं। यही वजह है कि रिपोर्ट के मुताबिक 1880 से 2012 तक धरती की सतह के औसत तापमान में 0.85 डिग्री सेल्शियस की वृद्धि हो चुकी है। नतीजतन कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन गैस सबसे उच्च स्तर पर हैं। इसी कारण समुद्र का जलस्तर 19 सेंटीमीटर तक ऊपर आ चुका है। इसी कारण पिछले 1400 सालों में 1983 और 2012 सबसे गर्म वर्ष रहे। इन चेतावनियों के बावजूद प्रकृतिक संपदा के बेतहाशा दोहन और ऊर्जा की अधिकतम खपत वाले विकास मॉडल को कोई देश बदलने को तैयार नहीं। सवाल है कि जब पर्यावरणीय सम्मेलनों मे निष्कर्षो पर अमल ही नहीं होना है तो इन बैठकों और चेतावनियों का क्या अर्थ रह जाता है?

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