Wednesday, November 5, 2014

पर्वतीय संसाधनों का सावधानी से हो दोहन



श्याम सरन

प्रकृति से लाभ लेना बहुत अच्छी बात है लेकिन उस दौरान हमें यह ख्याल रखना चाहिए कि दोहन उतना ही हो, जितने की भरपाई प्रकृति कर सके। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं श्याम सरन

मैं उत्तराखंड में हिमालय की पर्वत शृंखलाओं से लौटा हूं। बर्फ से ढकी उन चोटियों के बीच से आने के बाद जो उल्लास रहता है वह बरकरार है लेकिन पिछले कुछ सालों से भविष्य में आने वाली आपदा की आशंका दिनोदिन बढ़ रही है। ऐसा लग रहा है कि यह कमजोर धरोहर हमारे हाथ से फिसल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पर्यावरण का संरक्षण करने की प्रतिबद्घता जताई है और हिमालय के नाजुक पर्यावास को बचाने पर जो जोर दिया है, उसके लिए इससे बेहतर वक्त दूसरा नहीं हो सकता था। लेकिन यूनेस्को की उक्ति का सहारा लें तो पर्यावरण क्षरण की शुरुआत लोगों के दिमाग में होती है, वहीं पर इस लड़ाई को लडऩा और जीतना होगा।

उत्तरकाशी से गंगोत्री के मार्ग पर बुकी गांव है जहां से चढ़ाई शुरू होती है। गांव पर्वत शृंखलाओं के एकदम किनारे है और उसके एकदम करीब से भागीरथी नदी पूरी गति में बहती है। बहरहाल वहां बहुत जल्दी शहरी जीवन के कचरे से हमारा सामना होता है। इसमें प्लास्टिक का कचरा, छोड़े हुए जूते और कपड़े लत्ते आदि शामिल हैं। इस्तेमाल करो और फेंको की यह संस्कृति अब दूरदराज गांवों में भी घर बनाती जा रही है। लेकिन वहां से आगे बढ़ते ही शीघ्र ही हमारा सामना, चीड़, शाहबलूत, देवदार और सेब आदि के पेड़ों से पड़ता है और पास ही नजर आती हैं ठंडी और स्वच्छ जलधाराएं जिनका पानी आज भी पीने के लायक साफ और ताजा है। यह देश के सबसे दुर्लभ वनों में से एक है जहां आसानी से ऐसे वृक्ष मिल जाएंगे जो कई सौ साल पुराने हैं। कुछ की जड़ें तो कई फीट गहरी हैं।

मुझे डर है कि गंगोत्री मार्ग के इतना करीब होने की वजह से कहीं यह भी जल्दी ही तस्वीरों भर में रह जाए। उत्तरकाशी मार्ग पर मैंने देखा कि कैसे पूरा पहाड़ी क्षेत्र ध्वस्त होकर भागीरथी में समा रहा है। मैं पहले भी उन रास्तों पर गया हूं लेकिन इससे पहले मैंने कभी इस पैमाने का भूस्खलन नहीं देखा था। ऐसा मुख्यतौर पर ऊपरी इलाके में जंगल कटने और मिट्टी की पकड़ ढीली पडऩे के कारण हुआ है। सड़क निर्माण के लिए इस इलाके में लगातार धमाकों की जरूरत होती है, उससे भी जमीन की पकड़ कमजोर पड़ती है। भागीरथी नदी पर जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से ऐसी घटनाओं की आवृत्ति बढ़ी है।

अनियोजित विकास और आपाधापी ने उत्तरकाशी को एक शहरी फैलाव बना दिया है जो क्रुद्घ उत्तरकाशी नदी के तट पर पनप रहा है। कोई भी बाढ़ यहां एक झटके में हजारों लोगों की जिंदगी को खत्म कर सकती है। क्या बुकी गांव का यही भविष्य है? मैं जैसे-जैसे ऊंचाइयों की ओर बढ़ता गया पहाड़ों की चोटियां नजर आने लगीं और अगले कुछ दिनों तक हमारी सहयात्री बनी रहीं। यह वह पर्वतीय मार्ग था जिस पर बंदरपूंछ, गंगोत्री और जमुनोत्री आदि पड़ते हैं लेकिन हमारी मंजिल थी द्रौपदी का डांडा नाम से जानी जाने वाली पहाड़ी का आधार।

जैसा कि आमतौर पर होता है इन पहाडिय़ों के साथ भी कई जनश्रुतियां जुड़ी हुई हैं। कुछ स्थानीय लोग मानते हैं कि यह चोटी द्रौपदी की वह छड़ी है जो वह पांडवों के साथ स्वर्ग यात्रा के दौरान ले जा रही थी। कहावत के मुताबिक देवभूमि से गुजरते वक्त स्वर्ग जाने से ऐन पहले द्रौपदी ने अपनी छड़ी जमीन में गाड़ दी थी जो कालांतर में पर्वत शिखर के रूप में जानी गई। एक पर्वतारोही के तौर पर मेरा मानना है कि इन पहाड़ों और आसपास के खूबसूरत इलाके में कुछ तो ऐसा है जो हमारी संवेदनशीलता का विस्तार करता है और हमें अधिक नम्र तथा जागरूक बनाता है।

मैं बहुत जल्दी यह समझ गया कि इस स्वर्ग के साथ क्या हो रहा है? महज कुछ साल पहले तक उस शिखर का आधार एक ग्लेशियर हुआ करता था लेकिन अब वह महज कुछ किलोमीटर के दायरे में सिमट गया था। स्थानीय लोग इसे दुखहरणी बमक कहते हैं। स्थानीय भाषा में बमक का अर्थ होता है ग्लेशियर। लेकिन द्रौपदी का डांडा वह चोटी है जिसका उपयोग नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में किया जाता है। बाद में मुझे पता चला वहां प्रशिक्षु पर्वतारोहियों का दल पहले से ही मौजूद था क्योंकि वापसी में मुझे कई जगह प्रशिक्षण का सामान बुकी लौटता नजर आया।

जो सामान लाया ले जाया जा रहा था उनमें डीजल से चलने वाले जनरेटर और घरेलू गैस सिलिंडर तक शामिल थे। 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बेस कैंप में इनका इस्तेमाल किया जाना था। इस बात ने मुझे दुखी कर दिया। शायद उन युवाओं के मन में यह बात बिठाई जा रही थी कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचने की तुलना में उनका आराम अधिक मायने रखता था। क्या पर्वतारोहण के गुण सिखाने से बेहतर यह नहीं होगा कि युवाओं के मन में प्रकृति के प्रति प्यार और सम्मान का भाव पैदा किया जाए? उन्हें बताया जाए कि कैसे हमारा अस्तित्व इन बर्फीले ग्लेशियरों तथा चोटियों के संरक्षण से संबद्ध है।

वापसी में मैंने 2600 मीटर की ऊंचाई पर तेला बुग्याल नामक जगह पर कैंप लगाया। यह जगह हर ओर से घने वनों से घिरी हुई थी। वह नेहरू पर्वतारोहण संस्थान का भी आधार शिविर है इसलिए कई ढुलाई करने वाले वहां एकत्रित होकर द्रौपदी का डांडा से आने वाली टीम की प्रतीक्षा करते रहते हैं। शाम के करीब पांच बजे से लेकर रात नौ बजे तक डीजल का जनरेटर वातावरण में विष घोलता रहा। मोबाइल फोनों पर जोर से संगीत बज रहा था और बातचीत का शोर पूरे शांत माहौल पर भारी पड़ रहा था।


हमें प्रौद्योगिकी से मिलने वाली सुविधाओं का पूरा लाभ उठाना चाहिए, इसमें दोराय नहीं लेकिन वक्त गया है कि हम उस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए करें कि प्रकृति का आवश्यकता से अधिक दोहन हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाली तमाम पीढिय़ां द्रौपदी का डांडा से जुड़े किस्से ओर संबंधित सतर्कता को आत्मसात कर सकेंगी।

No comments:

Post a Comment