Wednesday, November 5, 2014

सरकारी बैंकों की कौन करेगा चौकीदारी?



देवाशिष बसु

क्या खुद को देश का चौकीदार और प्रधान सेवक कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकारी बैंकों पर ध्यान केंद्रित कर पाएंगे? इस पर सवाल उठा रहे हैं देवाशिष बसु

पिछले साल और इस साल के आरंभ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (जो उस वक्त प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे) ने अपने कई चुनावी भाषणों में जोर देकर कहा, 'मुझे बतौर चौकीदार दिल्ली भेजिए, मैं आपकी संपत्ति की रक्षा करूंगा।' इसके अलावा उन्होंने एक और जुमला बहुत जोर देकर उछाला- खाता हूं और खाने देता हूं। हमें उम्मीद है कि कभी कभी मोदी अपने इन दो चुनावी वादों को उस जगह पर लागू करेंगे जहां उनका सबसे अधिक महत्त्व है यानी सरकारी बैंकों में। सरकारी बैंकों का देश के वित्तीय क्षेत्र पर पूरा दबदबा है। लोगों की बचत का अधिकांश हिस्सा उन्हीं के पास है। वे छोटे कारोबारियों से लेकर बड़े उद्यमों तक को दिए जाने वाले कर्ज का स्रोत हैं। वे जन धन योजना के वाहक हैं। लेकिन इसके साथ ही उनके प्रबंधन में भी दिक्कतें हैं और वे बड़े पैमाने पर भ्रष्टïाचार का केंद्र हैं।

मई में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (एआईबीईए) ने अपने आकलन में कहा था कि सरकारी बैंकों के 400 ऋण खातों में 70,300 करोड़ रुपये मूल्य के डिफॉल्ट जानबूझकर हुए हैं। आकलन यह भी था कि पिछले सात सालों के दौरान सरकारी बैंकों में 4.95 लाख करोड़ रुपये का फंसा हुआ कर्ज था जबकि इसी अवधि में इन बैंकों ने करीब 1.4 लाख करोड़ रुपये मूल्य का फंसा कर्ज माफ किया। इन बैकों में कुल गैर निष्पादित आस्तियां और फंसा कर्ज मार्च 2008 से मार्च 2013 के दरमियान बढ़कर 39,000 करोड़ रुपये से 1.64 लाख करोड़ रुपये हो गया।

हजारों करोड़ रुपये माफ किए जा रहे हैं और उनके लिए किसी को जवाबदेह नहीं बनाया जा रहा है। डेक्कन क्रॉनिकल और किंगफिशर एयरलाइंस जैसे भारी भरकम डिफॉल्ट के मामलों में भी चूक करने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं होना या फिर ऐसे कर्ज को प्रबंधन के स्तर से ऊपर निकलने देने वाले बैंक अधिकारियों या चेयरमैन आदि पर कोई कार्रवाई होना इसके उदाहरण हैं। यह एक बहुत बड़ा घोटाला है और चौकीदार को इससे चिंतित होना ही चाहिए। अधिकतम प्रशासन को तो भूल जाइए सरकारी बैंकों में तो न्यूनतम प्रशासन भी नदारद है। ऐसा आज से नहीं बल्कि दशकों से है।

सन 70 के दशक में सरकार ने पीएसबी का इस्तेमाल विभिन्न सामाजिक योजनाओं और सरकारी उद्यमों की फंडिंग के लिए किया। इसकी वजह से बैंकों की वित्तीय स्थिति को गहरी चोट पहुंचती थी। इस पूरी अवधि के दौरान निजी क्षेत्र की कंपनियों ने भी कर्ज के लिए सरकारी बैंकों और वित्तीय योजनाओं पर ही भरोसा किया। विभिन्न तिकड़मों से इन परियोजनाओं को पूरी वित्तीय मदद सरकारी बैंकों से ही मुहैया कराई गई और अधिकांश प्रवर्तकों का एक भी पैसा उनमें नहीं लगा। स्वाभाविक सी बात थी कि परियोजनाएं घाटे का सौदा साबित हुईं जबकि प्रवर्तकों ने अच्छा खासा पैसा अर्जित कर लिया। दिवालिया संबंधी कानून बेहद कमजोर हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और डिफॉल्ट करने वाले कर्जदारों के गठजोड़ को तोडऩे का कोई जरिया नहीं है। इन सब बातों ने सरकारी बैंकों को बहुत नुकसान पहुंचाया। हालात बहुत बिगड़ जाने पर सरकार हस्तक्षेप करती और बैंकों को नए सिरे से धन मुहैया करा देती।

सन 1990 के दशक के मध्यम में आर्थिक उदारीकरण की चर्चाओं के बीच भारतीय कारोबारी जगत ने अपनी क्षमताओं का विस्तार किया। इसमें भी सरकारी बैंकों के धन ने अहम भूमिका निभाई। इस क्रम में पहले से खस्ताहाल सरकारी बैंकों की हालत और बुरी होती चली गई। वर्ष 2001-02 तक फंसे हुए कर्ज का स्तर अग्रिम के 13 फीसदी तक पहुंच गया था। करीब 30 साल तक बिना किसी जवाबदेही के कर्ज दिए जाने के बाद बैंकों ने कहना शुरू किया कि उनको खुद को बचाने के लिए सख्त कानूनों की आवश्यकता है। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप सरकार ने वित्तीय परिसंपत्ति का प्रतिभूतिकरण और पुनर्संरचना तथा प्रतिभूति ब्याज प्रवर्तन अधिनियम (एसएआरएफएईएसटी) अधिनियम, 2002 पारित कर दिया। इसका उद्देश्य था फंसे हुए कर्ज की रिकवरी करना। उम्मीद थी कि यह कानून बैंकों की मदद करेगा।

अधिनियम का एक प्रमुख प्रावधान यह है कि बैंक डिफॉल्ट करने वाले ग्राहकों की संपत्ति की नीलामी कर सकेंगे। लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि कानून बनने के इतने दिन बाद भी तो किंगफिशर के विजय माल्या और ही डेक्कन क्रॉनिकल के रेड्डी ब्रदर्स से किसी तरह की वसूली की जा सकी। इसका जवाब स्पष्टï है। बैंक अधिकारियों ने प्रवर्तकों के साथ मिलीभगत में ऋण दिया लेकिन रिजर्व बैंक अथवा वित्त मंत्रालय ने कभी भी बैंक अधिकारियों से कोई पूछताछ नहीं की। भारतीय स्टेट बैंक की चेयरपर्सन अरुंधती भट्टाचार्य ने हाल ही में फाइनैंशियल टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि नियामकीय व्यवस्था को चाक-चौबंद करने की आवश्यकता है। इसके अलावा दिवालिया संबंधी कानूनों में भी बदलाव लाया जाना चाहिए ताकि फंसे कर्ज की समस्या से निपटा जा सके। लेकिन उन्हीं कानूनों के साथ काम कर रहे आईसीआईसीआई बैंक, ऐक्सिस बैंक और एचडीएफसी बैंक का फंसा कर्ज न्यूनतम है। ऐसा क्यों है? दरअसल असल मुद्दा भ्रष्टïाचार है। इसकी शुरुआत बैंक के चेयरमैन की नियुक्ति से होती है।

सरकारी बैंक के चेयरमैन की नियुक्ति की प्रक्रिया विस्तृत है। इसकी शुरुआत विभिन्न वरिष्ठï बैंकरों की गहन लॉबीइंग से होती है। वित्त मंत्रालय के सचिव इसमें अहम भूमिका निभाते हैं और अक्सर चयन प्रक्रिया में एक दूसरे को लाभान्वित करने की प्रक्रिया शामिल होती है। आरबीआई की भूमिका अक्सर रबर स्टांप की होती है। अब भला वित्त मंत्रालय का समर्थन प्राप्त चेयरमैन किससे घबराएगा? मोदी ने अपने हर भाषण में प्रशासन की बात की। प्रशासन का पहला कदम है सरकारी क्षेत्र के बैंकों में फंसे हुए कर्ज की जवाबदेही तय करना। फिलहाल इसका सर्वथा अभाव है।


छोटे कारोबारियों की शिकायत है कि कर्ज देने के पहले उन पर बिना वजह की शर्तें थोपी जाती हैं। बैंक प्राय: कर्ज देने से पहले कुछ महंगी बीमा योजनाएं उन पर थोपते हैं। बावजूद उसके हजारों करोड़ रुपये का कर्ज चुकाए जाने से रह जाता है। किंगफिशर जैसा कर्ज फंस जाता है और यह काम रातोरात नहीं होता। जब माल्या देनदारियों में चूक रहे थे तो बैंक क्या कर रहे थे? क्या वे अन्य कर्ज लेने वालों के साथ भी ऐसा व्यवहार करेंगे? तथ्य यह है कि कर्ज लेने वालों ने लगातार बैंकिंग व्यवस्था से पैसा बनाया है। इस क्रम में लगातार नियामकीय व्यवस्था को धता बताया गया है। पिछले प्रधानमंत्रियों ने चौकीदार होने का दावा नहीं किया था लेकिन मोदी ने किया है। क्या 45 सालों में पहली बार देश के करदाता उम्मीद कर सकते हैं कि सरकारी बैंकों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाएगी?

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