Saturday, November 8, 2014

प्रकृति की रौद्र लीला का जिम्मेदार कौन!


रमोद भार्गव

ओडिशा और आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में तबाही का हल्ला बोलकर हुदहुद ठंडा पड़ गया। 170-180 किलोमीटर की रफ्तार से आए इस तूफान से करीब 15 लाख लोग प्रभावित हुए और छह मारे गए। करोड़ों की धान की फसल बर्बाद हो गयी। यह अच्छी बात है कि सूचना तकनीक के कमाल और मौसम विज्ञानियों की जागरूकता के चलते जो जन पशु हानि चक्रवातों के चलते देखने में आती रही है वह फैलिन की तरह इस बार भी नहीं हुई। मीडिया ने भी जिम्मेदार भूमिका निभाई। सप्ताह पहले जानकारी मिल गई थी कि हुदहुद भारत के समुद्र तटीय क्षेत्र में कोहराम मचाने वाला है। खबर मिलते ही राष्ट्रीय आपदा बचाव दल (एनडीआरएफ) सक्रिय हो गया और तूफान प्रभावित बस्तियों से 6.5 लाख से भी ज्यादा लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिये गए। केंद्र राज्य सरकारों की भी इस आपदा से निपटने में अहम भूमिका दिखी। पिछले 24 वर्षो के दौरान यह बचाव अभियान पिछले साल इसी क्षेत्र में आए फैलिन के बाद सबसे बड़ी बचाव मुहिम मानी जा रही है। इस बचाव प्रबंधन को और मजबूती देने की जरूरत है क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं का कहर दिन--दिन बढ़ता जा रहा है। दुनिया की महाशक्ति अमेरिका कुछ समय पहले जिस तरह सैंडी की चपेट में आया था, उससे साफ है, हम विज्ञान और तकनीकी रूप से चाहे जितने सक्षम हो लें, प्राकृतिक आपदाओं के समक्ष अंतत: लाचार हैं। वहां 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बर्फीली हवाओं और 14 फीट ऊंची समुद्री लहरों ने चंद घंटों में पांच करोड़ लोगों को आफत में डाल दिया था। इसमें 18 लोग मरे थे। वहां भी ऐसा कुशल प्रबंधन और सूचना तकनीक के कमाल से ही संभव हो पाया था। यह रौद्र रूप प्रकृति के कालच्रक की स्वाभाविक प्रक्रिया है अथवा मनुष्य द्वारा प्रकृति से किए गए अतिरिक्त खिलवाड़ का दुष्परिणाम!


इसके बीच एकाएक कोई विभाजक रेखा खींचना मुश्किल है। लेकिन बीते तीन-चार सालों के भीतर भारत, अमेरिका, ब्राजील, ऑंस्ट्रेलिया, फिलीपींस और श्रीलंका में जिस तरह तूफान, बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, बंवडर और कोहरे के भयावह मंजर देखने में रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि में प्रकृति के प्रति किया गया कोई कोई तो अन्याय जरूर अंतर्निहित है। जलवायु विषेशज्ञों का तो यहां तक कहना है कि आपदाओं के ये तांडव योरोप, एशिया और अफ्रीका के बड़े भू भाग की मानव आबादियों को रहने लायक ही नहीं रहने देंगे। लिहाजा इतनी बड़ी तादाद में आबादी का विस्थापन पलायपन होगा कि पर्यावरण शरणार्थी’ जैसी नई नियंतण्र समस्या खड़ी होने की आशंका है। इस बदलाव के व्यापक असर के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी आएगी। अकेले एशिया में बदहाल हो जाने वाली कृषि को बहाल करने के लिए हर साल करीब पांच अरब डॉंलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद दुनिया के करोड़ों स्त्री, पुरु बच्चों को भूख कुपोषण का अभिशाप झेलना होगा। अकाल के कहर ने हैती और सूडान में ऐसे ही हालात बना दिए हैं। जल्दी- जल्दी कहर बरपाते प्राकृतिक प्रकोप और उनका विस्तार भयावहता इस बात का संकेत है कि प्रकृति के दोहन पर आधारित विकास को बढ़ावा देकर हम जो पारिस्थितिकीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं, वह मनुष्य को खतरे में डाल रहा है। श्रीलंका में समुद्री तूफान से 3,25000 लोग बेघर हुए थे और करीब 50 लोग काल के गाल में समा गए थे। समुद्री तूफान से आस्ट्रेलिया में इससे भी भयानक हालात बने थे। यहां करीब 40 लाख लोग बेघर हुए थे। ब्रिस्बेन शहर में ऐसी कोई बस्ती शेष नहीं थी, जो जलमग्न हुई हो। तब भी सौ लोग मारे गए थे। खुद हमारे यहां इसी अगस्त में अतिवृष्टि के चलते आई बाढ़ ने पूरी कश्मीर घाटी को चपेट में ले लिया था। इन्हीं दिनों ब्राजील को बाढ़, भूस्खलन और शहरों में मिट्टी धंसने के हालात का एक साथ सामना करना पड़ा था। यहां मिट्टी धंसने और पहाड़ियो से कीचड़ युक्त पानी के प्रवाह ने 600 से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी। ब्राजील में प्रकृति के प्रकोप का कहर रियो जेनेरियो नगर में बरपा था। वही रियो, जिसमें जलवायु पर्वितन के मद्देनजर 1994 में पृथ्वी बचाने के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। लेकिन अपने-अपने औद्योगिक हित ध्यान में रखते हुए कोई भी विकसित देश कॉंर्बन कटौती के लिए तैयार नहीं हुआ था। बल्कि 1994 के बाद कॉंर्बन उत्सर्जन में और बढ़ोतरी हुई। जिसका नतीजा सामने है। रियो में हालात कितने दयनीय बने थे, इसकी तस्दीक इस बात से होती है कि यहां शुरुआती आपात सहायता राशि 470 करोड़ डॉंलर जारी की गई और सात टन दवाएं उपलब्ध कराई गई। यहां करीब दो हजार मकान भूस्खलन के मलवे में बदल गए थे। कुछ ऐसे ही हालात भारत के लद्दाख में भी बने थे। इसी कालखंड में मैक्सिको के सेलटिलो शहर में कोहरा इतना गहराया कि सड़कों पर एक हजार से भी ज्यादा वाहन परस्पर टकरा गए थे। इस विचित्र और भीषण हादसे में करीब 25 लोग मारे गए थे और अनगिनत अपाहिज हुए। ठीक इसी दौर में र्केटानिया ज्वालामुखी की सौ मीटर ऊंची लौ ने नगर में राख की परत बिछा दी थी और हवा में घुली राख ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया था। इसके ठीक पहले अप्रैल 2010 में उत्तरी अटलांटिक समुद्र के पास स्थित योरोप के छोटे से देश आइसलैंड में इतना भयंकर ज्वालामुखी फटा कि योरोप जाने वाली 17000 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। आइसलैंड से उठे इस धुएं ने इग्लैंड, नीदरलैंड और जर्मनी को घेरे में ले लिया था। ज्वालामुखी का तापमान 1200 डिग्री सेल्शियस आंका गया था। 3 लाख 20 हजार की आबादी वाले इस शहर के नागरिकों को प्राण बचाने के लिए तत्काल घर छोड़ने पड़े थे। योरोप के कई देशों में शून्य से 15 डिग्री नीचे खिसका तापमान और हिमालय अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में 14 डिग्री सेल्सियस तक चढ़े ताप के असामान्य आंकड़े जलवायु पर्वितन का साफ संकेतक हैं। इसी के आधार पर वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि 2055 से 2060 के बीच हिमयुग सकता है, जो 45 से 65 साल तक वजूद में रहेगा। 1645 में भी हिमयुग की मार दुनिया झेल चुकी है। ऐसे में सूरज की तपिश कम होगी। पारा गिरने लगेगा। हालांकि सौर चक्र 70 साल का होता है। इस कारण इस बदली स्थिति का आकलन एकाएक करना नामुमकिन है। ये बदलाव होते हैं तो विषेशज्ञों का मानना है कि दुनिया भर में 2050 तक 25 करोड़ लोग पलायन के लिए मजबूर हो सकते हैं। बदलाव की यह मार मालदीव और प्रशांत महासागर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को लील लेगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव सरकार ने कुछ साल पहले समुद्र की तलहटी में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक सम्मेलन आयोजित किया था, जिससे औद्योगिक देश कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती कर दुनिया को बचाएं। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने योरोपीय देशों में आईं प्राकृतिक आपदाओं का आकलन करते हुए कहा है कि ऐसे ही हालात रहे तो करीब तीन करोड़ लोगों के भूखों मरने की नौबत जाएगी। भारत के जाने-माने कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन का कहना है कि यदि धरती के तापमान में महज एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन तक घट सकता है। हालांकि हाल के अनुसंधानों में पाया गया है कि उच्चतम ताप निम्नतम जाड़ा झेलने के बावजूद जीवन की प्रक्रिया का क्रम जारी रहता है। दरअसल जीव वैज्ञानिकों ने 70 डिग्री तक चढ़े पारे और 70 डिग्री तक नीचे गिरे पारे के बीच सूक्ष्म जीवों की पड़ताल की है। वे इस अनुसंधान में लगे हैं कि इन जीवों में ऐसे कौन से तत्व हैं, जो इतने विपरीत परिवेश में भी जीवन को गतिशील बनाए रखते हैं। जो हो, जीवन के इस रहस्य की पड़ताल कर भी ली जाए तो इसे बड़ी मानव आबादी तक पहुंचाना कठिन है। लिहाजा हुदहुद का तांडव देखने के बाद जरूरी हो गया है कि प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और औद्योगिक विकास पर अंकुश लगे।

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